अपना भी टाइम आयेगा
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(महिला सशक्तिकरण)
एक कहानी रोज़-61
*अपना टाइम आयेगा*
*"तुम* इतनी जल्दी टुट जाओगी मुझे यकीन नहीं था।" शहर के प्रतिष्ठित काॅन्ट्रोवर्सी लेखक अहम घर आई नवाकुंरित लेखिका अनुराधा से बोले।
"मुझे भी यकीन नहीं था आदरणीय। खैर!
मेरे विचार आम पाठकों तक पहूंचना चाहिये। वो मेरे नाम से पहूंचे या आपके नाम से। कोई फर्क नहीं पड़ता। शेक्सपियर ने कहा है कि नाम में क्या रखा है।" अनुराधा बोली।
"ग्रेट! अपनी पाण्डुलिपि मुझे लाकर दे दो। तुम्हें राॅयल्टी मिल जायेगी।" अहम बोलकर अपने लेखन कक्ष में चले गये।
हाथों में कसकर पकड़ी पाण्डुलिपि की जिल्द चढ़ी पुस्तक अब तक अनुराधा ने अपने सीने से लगाकर रखी थी। दबे पांव बोझिल मन से उसने अहम के लेखन कक्ष में प्रवेश किया। पुस्तक टेबल पर रख वह घर चली गयी।
अपनी पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए अनुराधा ने क्या नहीं किया! ऐसा कोई प्रकाशन शेष नहीं था जहां उसने जाकर मिन्नते न की हो। प्रकाशक बिना शुल्क लिए पुस्तक प्रकाशित करने को तैयार नहीं थे। अनुराधा पैसे देकर पुस्तक प्रकाशित करने के पक्ष में नहीं थी। अखबारों और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अनुराधा की कहानीयां समय-समय पर प्रकाशित होती थी। एक समय बाद उसे आभास हुआ कि अब इन कहानियों की पुस्तक निकाली जानी चाहिये। पुस्तक की राॅयल्टी से परिवार को आर्थिक मदद मिल जायेगी। यह सोचकर उसने स्वरचित कहानियों का संकलन तैयार किया।
अनुराधा की अखबारों में प्रकाशित कहानियों को पढ़कर अहम ने उसे अपने यहां मिलने बुलाया। अनुराधा की रचनाएँ पढ़कर वे प्रभावित थे। शहर के जाने-माने लेखक से अपनी प्रशंसा सुनकर अनुराधा फुले नहीं समा रही थी। किन्तु इन्हीं अहम के मुख से एक अनोखे प्रस्ताव को सुनकर अनुराधा के होश उड़ गये। अहम चाहते थे की अनुराधा द्वारा रचित उपन्यास अहम के नाम से प्रकाशित हो। इसकी राॅयल्टी अनुराधा को मिलती रहेगी। नाम अहम का होगा। अहम एक प्रसिद्ध लेखक थे। उनकी पुस्तकों का पाठकों को इंतज़ार रहता था। इस प्रस्ताव को अनुराधा स्वीकार नहीं कर सकी। उसने साफ़ तौर पर मना कर दिया।
समय तेजी से गुजर रहा था। घर की अलमारी में रखी पाण्डुलिपियां अनुराधा का मखौल उड़ा रही थी। मानो कह रही हो 'जब प्रकाशित करने का सामर्थ्य नहीं था तब अनुराधा ने उन्हें कागज पर उकेरा क्यों? रद्दी में बिकने से तो अच्छा है कि उन्हें आग लग दी जाये या किसी नदि की धारा में प्रवाहित कर दी जाये।'
तनावग्रस्त अनुराधा अपनी सभी रचनाओं की पाण्डुलिपियों को आग लगा देना चाहती थी। ताकी वर्षों से सिसकती उसकी अंतरात्मा को कुछ पल बाद शांति तो मिले। उसे तनु ने ऐसा करने से रोका। तनु अनुराधा की छोटी बहन थी। पिता समय से पुर्व ही उनका साथ छोड़ कर स्वर्ग में जा बैठे थे। मां सुप्रिया मिर्ची कारखाने में पैकिंग का काम वर्षों से करती आ रही थी। दो बहन और दस वर्ष का अनुज सबसे छोटा था। अनुराधा अपने साथ अपनी छोटी बहन और भाई अनुज को पढ़ा-लिखा रही थी। घर में आर्थिक सहयोग देने के लिए वह मोहल्ले के बच्चों की ट्यूशन लिया करती। विषम परिस्थितियों में भी अनुराधा ने लेखन नहीं छोड़ा। साप्ताहिक न भी हो सके तो वह मासिक साहित्यिक गोष्ठीयों में सम्मिलित होना नहीं भूलती। उसके लेखन के वहां भी बहुत कद्रदान थे। अनुराधा का साहित्य प्रेम तनु और उसकी मां सुप्रिया जानती थी। वे दोनो ही अनुराधा को साहस दिया करती। तनु ने तो यहां तक कह दिया की वह अपनी रचनाएँ अहम जी के नाम से प्रकाशित करवाये। नाम भले ही उनका होगा किन्तु इससे कुछ आमदनी से निश्चित होगी जो उसका उत्साह वर्धन अवश्य करेगी। एक दिन उसका भी टाइम आयेगा।
तनु की बात से अनुराधा सहमत नज़र आयी। उसने अपना पहला उपन्यास अहम नामदेव के नाम से प्रकाशित करने की रजामंदी दे दी।
तनु ने अनुराधा को मिथुन से मिलवाया। मिथुन शौकीयां शाॅर्ट मुवी बनाता था। अनुराधा ने मिथुन की मांग पर एक दस मिनीट की शाॅर्ट मुवी स्क्रिप्ट लिखकर दे दी। मिथुन को वो बड़ी पसंद आयी। काॅलेज के ही लड़के-लड़कीयों ने उसमें अभिनय किया। कुछ ही दिनों में वह शाॅर्ट मुवी बनकर तैयार हो गयी। सोशल मीडिया पर उस मुवी को हजारों की संख्या में व्यूह मिले। किन्तु ये बहुत ही अल्प था। इसके बाद भी अनुराधा को कोई विशेष लाभ नहीं मिला। मिथुन ने अनुराधा से कुछ अच्छे चयनित विषयों पर गीत लिखाकर यूट्यूब पर अपलोड किये। मगर वे कुछ ख़ास कमाल नहीं दिखा सके।
इस असफला की वजह मिथुन जानता था। मगर अनुराधा से सीधे तौर पर बोल नहीं सका। निराश अनुराधा कुछ दिनों के लिए शांत बैठ गयी। तनु ने उसे समझाया।
"दीदी! फिल्में छोटी हो या बड़ी! अंग प्रदर्शन और ग्लैमर्स के बिना नहीं चलती!"
"मैं ऐसा नहीं मानती। मैं ग्लैमर के विरूद्ध नहीं हूं किन्तु इसके बिना भी अच्छी मनोरंजक फिल्म बनायी जा सकती है। और एक दिन मैं ये प्रुफ कर दूंगी।"अनुराधा बोली।
किराने वाले अंकल सुखराम दादा अनुराधा के लेखन से बहुत प्रभावित थे। वे अक्सर कहा करते थे की एक न एक दिन अनुराधा बहुत बड़ी लेखक बनेगी। दुध वाले अम्बाराम बा भी अनुराधा की कहानियां पढ़कर उसे साधुवाद देना नहीं भुलते। लेकिन जब एक शाम ठेले पर सब्जी बेचने आयी प्रियंका बाई ने मोहल्ले में कुछ लोगों के सामने अनुराधा की तारीफ में कसीदें पढ़े, तब अनुराधा ने अपने अंदर एक तेजस्वी ऊर्जा का संचार अनुभव किया। ये सब लोग अनुराधा से किसी न किसी रूप में जुड़े थे। अनुराधा से जुड़कर इन्हें आर्थिक लाभ वर्षों से मिल रहा था। तब क्यों न इन सभी को एक बार अपने हितार्थ अनुराधा ऊपयोग करे? उसने सोचा।
बस फिर क्या था। एक सी ग्रेड फिल्म के वित्त की व्यवस्था अनुराधा ने अपने मोहल्ले से ही करने की ठानी। शुरू-शुरू में थोड़ी परेशानी हुई लेकिन अनुराधा के प्रभावित उद्बोधन और गहरे आत्म विश्वास को देखकर हर कोई बढ़ चढ़कर चंदा देने लगा। गणपति बप्पा, नवरात्र और होली के लिए चंदा मांगने वाले रहवासी अनुराधा की फिल्म के लिए चंदा जमा कर रहे रहे थे। पार्षद, विधायक और सांसद सभी ने अनुदान दिया। एक निश्चित तिथि पर फिल्म का मुहूर्त हुआ। अनुराधा फिल्म की कहानी, संवाद और गीत सबकुछ लिख रही थी। नायक और नायिका नये थे। सो न्यूनतम फीस पर वे लोग अनुराधा की फिल्म में अभिनय करने को तैयार हो गये।
इधर अनुराधा का लिखा उपन्यास अहम के नाम से प्रकाशित होकर बेस्ट सेलर नाॅवेल ऑफ दी ईयर में सम्मिलित हो चुका था। अनुराधा के स्थान पर अहम की हर जगह तारिफ हो रही थी। बहुत से निर्माता 'नारीयोत्तम नैना' उपन्यास पर फिल्म निर्माण के प्रस्ताव अहम को दे चुके थे। अहम अब भी सर्वाधिक फीस की प्रतिक्षा कर रहा था। जिसे उपन्यास के राइट्स बेचे जा सके।
अनुराधा की चौबिस में से अठारह घण्टे की कढ़ी मेहनत देखकर 'अपना टाइम आयेगा' फिल्म की टीम अत्यधिक प्रभावित थी। उन्होंने भी अपना सौ प्रतिशत देने में ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। छः माह में बनने वाली मुवी चार माह में बनकर तैयार हो गयी। केन्द्रीय सेंसर बोर्ड के पास फिल्म सर्टीफिकेट के लिए भेजी गयी। फिल्म को यू सर्टीफिकेट देने में सेंसर बोर्ड को कोई आपत्ति नहीं दिखी। क्योंकि उसमें आपत्तिजनक कुछ नहीं था। प्रोमो रीलिज पर समीक्षकों ने फिल्म को सिरे से खारीज कर दिया। फिल्म में नायिका का संघर्ष था किन्तु ग्लैमर और चकाचौंध नहीं थी। तय तिथि पर फिल्म रीलिज भी हुई। बहुत कम वितरकों ने फिल्म खरीदी। थियेटर भी इस नयी फिल्म को दिखाने के मुड में नहीं थे। खैर! ओने-पोने दाम पर फिल्म कुछ थियेटर में रीलिज हुई। फिल्म का एक गीत बहुत प्रसिद्ध हुआ। बच्चों-बच्चों की जुबांन पर वो गीत था। कुछ दर्शक तो इसी गीत की लोकप्रियता के कारण ही फिल्म देखने थियेटर में जा घुसे। इसमें कोई श़क न था कि मुवी बहुत बड़ी फ्लाॅप थी। किन्तु संगीत के कारण और सोशल मीडिया पर टेलीकास्ट होने के कारण फिल्म की लागत निगल आई। कुछ अखब़ारों ने फिल्म को एक अच्छी फिल्म का तमगा दिया। इन सबमें एक अच्छी बात यह हुईं कि अनुराधा को मीडिया और बाॅलीवुड ने नोट किया। आज स्क्रीप्ट राइटिंग के उसके पास कुछ अच्छे प्रस्ताव थे। अनुराधा इसे एक बहुत बड़ी विजय की तरह देख रही थी।
अनुराधा को उस समय बहुत बड़ा धक्का लगा जब उसके और अहम के बीच अफेयर की चर्चा ने बाज़ार गर्म कर दिया। वह जानती थी कि अहम काॅन्ट्रोवर्सी क्रियेट करने में माहिर थे। ये उनका सोचा समझा एक षडयंत्र था। जिसके परिणाम स्वरूप 'नारीयोत्तम नैना' उपन्यास की बिक्री में बड़ी तेजी से उछाल देखा गया।
"मगर आपको मुझे विश्वास में लेने चाहिये था पहले।" अनुराधा गुस्से में अहम पर भड़ास निकाल रही थी।
"तुम्हें सब बता देता तो क्या तुम इसके लिए राज़ी हो जाती?" अहम ने पुछा।
अनुराधा के पास उत्तर नहीं था। वह कुछ देर वहीं खड़ी रही। तब तक अहम ने उस पर अगला प्रहार कर दिया।
"अनुराधा! मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं। वील यूं मेरी मी?"
"ये क्या कह रह रहे आप? विवाहित जीवन में आप पहले ही दो बार असफल हो चुके है! इसके बाद भी विवाह करना चाहते है!" अनुराधा बोली।
"तुम शायद मेरे विषय में बहुत कुछ जानती हो!" अहम बोले।
"कौन नहीं जानता।" अनुराधा का प्रतिउत्तर था।
"सही कहा। लेकिन सबकी तरह तुम भी उतना ही जानती हो जितना की मैंने बताया है!" अहम ने कहा।
"क्या मतलब? आपके विषय में जो कुछ सुना, जो पढ़ा, क्या वो सब गल़त है?" अनुराधा ने पुछा।
"नहीं। मैंने ऐसा नही कहा। मेरे कहने का अर्थ है की वो सब अधुरी जानकारी थी।" अहम ने बताया।
अनुराधा आश्चर्यचकित जरूर थी मगर वो अहम को कुछ और समझना चाहती थी।
अहम ने बताया की वह स्वयं भी एक आम लेखकों की तरह प्रकाशकों की ड्योढ़ी पर मत्था टेकने हर रोज़ जाया करता था। मगर कोई भी प्रकाशक उसकी पुस्तक प्रकाशित करने के लिए तैयार नहीं था। अहम इतनी जल्दी हिम्मत हारने वालों में से नहीं था। वह निरंतर प्रयास करता रहा। तब ही उसके संपर्क में सानिया मिर्जा आई। जो स्वयं एक लेखक और प्रकाशक थी। उसने अहम का नाॅवेल पढ़ा। उसे अच्छा भी लगा। किन्तु उपन्यास प्रकाशित करने के पीछे उसने जो शर्त रखी वो अहम को दुविधा में डालने के लिए पर्याप्त थी। सानिया ने अहम को काॅन्ट्रोवर्सी लेखक बनाने का संकल्प लिया। न चाहते हुये भी वह इस बात के लिए तैयार हो गया। सानिया ने अहम को विवादित विषयों पर लेख लिखने हेतु तैयार किया। उसने अपने बलबुते पर वे लेख स्थानीय अखबारों में प्रकाशित भी करवा दिये। साथ ही महिलाओं की एक टुकड़ी को धन-धान्य लेकर अहम के विरूध्द सड़कों पर उतार दिया। अहम के विरूध्द महिलाओं को अपने लेख में अपमानित करना और अश्लीलता फैलाने के संगीन आरोप लगाये गये। यहां तक की बीच सड़क पर उसके मुंह पर कालिख पोती गयी। इस पर भी सानिया नहीं रूकी। उसने सारे शहर में जुते की माला पहनाकर अहम की गधे पर संवारी तक निकाल दी। सारे अखब़ार अहम की ख़बरों से पटे पड़े थे। न्यूज चैनल्स भी अहम की खबरें दिखा रहे थे। रातों-रात अहम स्टार बन चूका था। बुरा ही सही मगर हर कोई उसके विषय में जानना और पढ़ना चाहता था। कुछ दिन हवालात की हवा खाने के बाद सानिया ने अहम को छुड़वा लिया। इसी बीच अहम का प्रथम प्रकाशित उपन्यास 'मामस् मैरिज' पाठकों की पसंद बन चूका था। 'मामस् मैरिज' की एक लाख से अधिक काॅपीयां विक्रय हुई। अवसर का लाभ उठाकर सानिया ने अहम से विवाह कर लिया। सानिया का ऐसा का प्रभाव था की अहम सानिया को मना नहीं कर पाया। अहम की बागडोर अब सानिया के हाथों में थी। सानिया जैसा नाच नचाती, अहम वैसा ही नाचता। अहम को क्या लिखना चाहिये क्या नहीं! इस विषय पर सानिया की घुसपैठ अहम बर्दाश्त नहीं कर सका। परिणाम स्वरूप दोनों में अक्सर वाद-विवाद होने लगे। आये दिन के घरेलु झगड़ों को देखकर सानिया को विश्वास हो गया कि अब अधिक दिनों तक अहम उसे झेल नहीं पायेगा। अतएव राजी-मर्जी से उसने अहम को अपने बिजनेस और जिन्दगी से निकाल बाहर फेंक दिया। अहम खुली हवा में सांस ले ही रहा था कि उसकी जिन्दगी में अर्पणा आ गयी। अपर्णा श्रृंगार रस को पसंद करती थी। अहम का श्रृंगार में भी पर्याप्त दखल था। पत्रों के माध्यम से वह अपर्णा को अपनी नव श्रृंगारित कविताएं भेजा करता। अपर्णा के रूप सौन्दर्य पर अहम मोहित हो गया था। दोनों की प्रारंभिक मुलाकातें प्रेम में बदल गयी। और अंततः दोनों विवाह के बंधन में बंध गये। सब कुछ ठीक चल रहा था। किन्तु अहम के इर्द-गिर्द युवतियों की भरमार देखकर अर्पणा जल भुन जाती। उसे अहम पर एकाधिकार चाहिए था। अहम को यह मंजुर नहीं था। जल्दी ही ये दोनों भी अलग हो गये।
अहम के मुख से सब सुनकर अनुराधा अब भी वही खड़ी थी। अहम उसका निर्णय जानने को आतुर था। यह अनुराधा ने उसकी आंखों की बेचैनी देखकर भांप लिया था।
" अहम जी! मैं दुसरी अहम नहीं बनना चाहती! मैं औरों का सहारा बनना चाहती हूं न की कोई मेरा सहारा बने। अभी तो मेरा सफ़र शुरू ही हुआ है! ठहरने की बात अभी मैं सोच भी नहीं सकती। आपके निजी अनुभव निश्चित ही मुझे सतर्क और सजग रहते हुये अपने लक्ष्य को हासिल करने में मददगार होंगे।" इतना बोलकर अनुराधा वहां से जा चुकी थी। कल ही उसे मुम्बई के लिए निकलना था। जहां उसकी लिखी अगली स्क्रिप्ट पर फिल्म का मुहूर्त होना था।
समाप्त
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प्रमाणीकरण-- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
©®सर्वाधिकार सुरक्षित
लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
177, इंदिरा एकता नगर पूर्व रिंग रोड मुसाखेड़ी इंदौर मध्यप्रदेश
मोबाइल नम्बर
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"मुझे भी यकीन नहीं था आदरणीय। खैर!
मेरे विचार आम पाठकों तक पहूंचना चाहिये। वो मेरे नाम से पहूंचे या आपके नाम से। कोई फर्क नहीं पड़ता। शेक्सपियर ने कहा है कि नाम में क्या रखा है।" अनुराधा बोली।
"ग्रेट! अपनी पाण्डुलिपि मुझे लाकर दे दो। तुम्हें राॅयल्टी मिल जायेगी।" अहम बोलकर अपने लेखन कक्ष में चले गये।
हाथों में कसकर पकड़ी पाण्डुलिपि की जिल्द चढ़ी पुस्तक अब तक अनुराधा ने अपने सीने से लगाकर रखी थी। दबे पांव बोझिल मन से उसने अहम के लेखन कक्ष में प्रवेश किया। पुस्तक टेबल पर रख वह घर चली गयी।
अपनी पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए अनुराधा ने क्या नहीं किया! ऐसा कोई प्रकाशन शेष नहीं था जहां उसने जाकर मिन्नते न की हो। प्रकाशक बिना शुल्क लिए पुस्तक प्रकाशित करने को तैयार नहीं थे। अनुराधा पैसे देकर पुस्तक प्रकाशित करने के पक्ष में नहीं थी। अखबारों और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अनुराधा की कहानीयां समय-समय पर प्रकाशित होती थी। एक समय बाद उसे आभास हुआ कि अब इन कहानियों की पुस्तक निकाली जानी चाहिये। पुस्तक की राॅयल्टी से परिवार को आर्थिक मदद मिल जायेगी। यह सोचकर उसने स्वरचित कहानियों का संकलन तैयार किया।
अनुराधा की अखबारों में प्रकाशित कहानियों को पढ़कर अहम ने उसे अपने यहां मिलने बुलाया। अनुराधा की रचनाएँ पढ़कर वे प्रभावित थे। शहर के जाने-माने लेखक से अपनी प्रशंसा सुनकर अनुराधा फुले नहीं समा रही थी। किन्तु इन्हीं अहम के मुख से एक अनोखे प्रस्ताव को सुनकर अनुराधा के होश उड़ गये। अहम चाहते थे की अनुराधा द्वारा रचित उपन्यास अहम के नाम से प्रकाशित हो। इसकी राॅयल्टी अनुराधा को मिलती रहेगी। नाम अहम का होगा। अहम एक प्रसिद्ध लेखक थे। उनकी पुस्तकों का पाठकों को इंतज़ार रहता था। इस प्रस्ताव को अनुराधा स्वीकार नहीं कर सकी। उसने साफ़ तौर पर मना कर दिया।
समय तेजी से गुजर रहा था। घर की अलमारी में रखी पाण्डुलिपियां अनुराधा का मखौल उड़ा रही थी। मानो कह रही हो 'जब प्रकाशित करने का सामर्थ्य नहीं था तब अनुराधा ने उन्हें कागज पर उकेरा क्यों? रद्दी में बिकने से तो अच्छा है कि उन्हें आग लग दी जाये या किसी नदि की धारा में प्रवाहित कर दी जाये।'
तनावग्रस्त अनुराधा अपनी सभी रचनाओं की पाण्डुलिपियों को आग लगा देना चाहती थी। ताकी वर्षों से सिसकती उसकी अंतरात्मा को कुछ पल बाद शांति तो मिले। उसे तनु ने ऐसा करने से रोका। तनु अनुराधा की छोटी बहन थी। पिता समय से पुर्व ही उनका साथ छोड़ कर स्वर्ग में जा बैठे थे। मां सुप्रिया मिर्ची कारखाने में पैकिंग का काम वर्षों से करती आ रही थी। दो बहन और दस वर्ष का अनुज सबसे छोटा था। अनुराधा अपने साथ अपनी छोटी बहन और भाई अनुज को पढ़ा-लिखा रही थी। घर में आर्थिक सहयोग देने के लिए वह मोहल्ले के बच्चों की ट्यूशन लिया करती। विषम परिस्थितियों में भी अनुराधा ने लेखन नहीं छोड़ा। साप्ताहिक न भी हो सके तो वह मासिक साहित्यिक गोष्ठीयों में सम्मिलित होना नहीं भूलती। उसके लेखन के वहां भी बहुत कद्रदान थे। अनुराधा का साहित्य प्रेम तनु और उसकी मां सुप्रिया जानती थी। वे दोनो ही अनुराधा को साहस दिया करती। तनु ने तो यहां तक कह दिया की वह अपनी रचनाएँ अहम जी के नाम से प्रकाशित करवाये। नाम भले ही उनका होगा किन्तु इससे कुछ आमदनी से निश्चित होगी जो उसका उत्साह वर्धन अवश्य करेगी। एक दिन उसका भी टाइम आयेगा।
तनु की बात से अनुराधा सहमत नज़र आयी। उसने अपना पहला उपन्यास अहम नामदेव के नाम से प्रकाशित करने की रजामंदी दे दी।
तनु ने अनुराधा को मिथुन से मिलवाया। मिथुन शौकीयां शाॅर्ट मुवी बनाता था। अनुराधा ने मिथुन की मांग पर एक दस मिनीट की शाॅर्ट मुवी स्क्रिप्ट लिखकर दे दी। मिथुन को वो बड़ी पसंद आयी। काॅलेज के ही लड़के-लड़कीयों ने उसमें अभिनय किया। कुछ ही दिनों में वह शाॅर्ट मुवी बनकर तैयार हो गयी। सोशल मीडिया पर उस मुवी को हजारों की संख्या में व्यूह मिले। किन्तु ये बहुत ही अल्प था। इसके बाद भी अनुराधा को कोई विशेष लाभ नहीं मिला। मिथुन ने अनुराधा से कुछ अच्छे चयनित विषयों पर गीत लिखाकर यूट्यूब पर अपलोड किये। मगर वे कुछ ख़ास कमाल नहीं दिखा सके।
इस असफला की वजह मिथुन जानता था। मगर अनुराधा से सीधे तौर पर बोल नहीं सका। निराश अनुराधा कुछ दिनों के लिए शांत बैठ गयी। तनु ने उसे समझाया।
"दीदी! फिल्में छोटी हो या बड़ी! अंग प्रदर्शन और ग्लैमर्स के बिना नहीं चलती!"
"मैं ऐसा नहीं मानती। मैं ग्लैमर के विरूद्ध नहीं हूं किन्तु इसके बिना भी अच्छी मनोरंजक फिल्म बनायी जा सकती है। और एक दिन मैं ये प्रुफ कर दूंगी।"अनुराधा बोली।
किराने वाले अंकल सुखराम दादा अनुराधा के लेखन से बहुत प्रभावित थे। वे अक्सर कहा करते थे की एक न एक दिन अनुराधा बहुत बड़ी लेखक बनेगी। दुध वाले अम्बाराम बा भी अनुराधा की कहानियां पढ़कर उसे साधुवाद देना नहीं भुलते। लेकिन जब एक शाम ठेले पर सब्जी बेचने आयी प्रियंका बाई ने मोहल्ले में कुछ लोगों के सामने अनुराधा की तारीफ में कसीदें पढ़े, तब अनुराधा ने अपने अंदर एक तेजस्वी ऊर्जा का संचार अनुभव किया। ये सब लोग अनुराधा से किसी न किसी रूप में जुड़े थे। अनुराधा से जुड़कर इन्हें आर्थिक लाभ वर्षों से मिल रहा था। तब क्यों न इन सभी को एक बार अपने हितार्थ अनुराधा ऊपयोग करे? उसने सोचा।
बस फिर क्या था। एक सी ग्रेड फिल्म के वित्त की व्यवस्था अनुराधा ने अपने मोहल्ले से ही करने की ठानी। शुरू-शुरू में थोड़ी परेशानी हुई लेकिन अनुराधा के प्रभावित उद्बोधन और गहरे आत्म विश्वास को देखकर हर कोई बढ़ चढ़कर चंदा देने लगा। गणपति बप्पा, नवरात्र और होली के लिए चंदा मांगने वाले रहवासी अनुराधा की फिल्म के लिए चंदा जमा कर रहे रहे थे। पार्षद, विधायक और सांसद सभी ने अनुदान दिया। एक निश्चित तिथि पर फिल्म का मुहूर्त हुआ। अनुराधा फिल्म की कहानी, संवाद और गीत सबकुछ लिख रही थी। नायक और नायिका नये थे। सो न्यूनतम फीस पर वे लोग अनुराधा की फिल्म में अभिनय करने को तैयार हो गये।
इधर अनुराधा का लिखा उपन्यास अहम के नाम से प्रकाशित होकर बेस्ट सेलर नाॅवेल ऑफ दी ईयर में सम्मिलित हो चुका था। अनुराधा के स्थान पर अहम की हर जगह तारिफ हो रही थी। बहुत से निर्माता 'नारीयोत्तम नैना' उपन्यास पर फिल्म निर्माण के प्रस्ताव अहम को दे चुके थे। अहम अब भी सर्वाधिक फीस की प्रतिक्षा कर रहा था। जिसे उपन्यास के राइट्स बेचे जा सके।
अनुराधा की चौबिस में से अठारह घण्टे की कढ़ी मेहनत देखकर 'अपना टाइम आयेगा' फिल्म की टीम अत्यधिक प्रभावित थी। उन्होंने भी अपना सौ प्रतिशत देने में ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। छः माह में बनने वाली मुवी चार माह में बनकर तैयार हो गयी। केन्द्रीय सेंसर बोर्ड के पास फिल्म सर्टीफिकेट के लिए भेजी गयी। फिल्म को यू सर्टीफिकेट देने में सेंसर बोर्ड को कोई आपत्ति नहीं दिखी। क्योंकि उसमें आपत्तिजनक कुछ नहीं था। प्रोमो रीलिज पर समीक्षकों ने फिल्म को सिरे से खारीज कर दिया। फिल्म में नायिका का संघर्ष था किन्तु ग्लैमर और चकाचौंध नहीं थी। तय तिथि पर फिल्म रीलिज भी हुई। बहुत कम वितरकों ने फिल्म खरीदी। थियेटर भी इस नयी फिल्म को दिखाने के मुड में नहीं थे। खैर! ओने-पोने दाम पर फिल्म कुछ थियेटर में रीलिज हुई। फिल्म का एक गीत बहुत प्रसिद्ध हुआ। बच्चों-बच्चों की जुबांन पर वो गीत था। कुछ दर्शक तो इसी गीत की लोकप्रियता के कारण ही फिल्म देखने थियेटर में जा घुसे। इसमें कोई श़क न था कि मुवी बहुत बड़ी फ्लाॅप थी। किन्तु संगीत के कारण और सोशल मीडिया पर टेलीकास्ट होने के कारण फिल्म की लागत निगल आई। कुछ अखब़ारों ने फिल्म को एक अच्छी फिल्म का तमगा दिया। इन सबमें एक अच्छी बात यह हुईं कि अनुराधा को मीडिया और बाॅलीवुड ने नोट किया। आज स्क्रीप्ट राइटिंग के उसके पास कुछ अच्छे प्रस्ताव थे। अनुराधा इसे एक बहुत बड़ी विजय की तरह देख रही थी।
अनुराधा को उस समय बहुत बड़ा धक्का लगा जब उसके और अहम के बीच अफेयर की चर्चा ने बाज़ार गर्म कर दिया। वह जानती थी कि अहम काॅन्ट्रोवर्सी क्रियेट करने में माहिर थे। ये उनका सोचा समझा एक षडयंत्र था। जिसके परिणाम स्वरूप 'नारीयोत्तम नैना' उपन्यास की बिक्री में बड़ी तेजी से उछाल देखा गया।
"मगर आपको मुझे विश्वास में लेने चाहिये था पहले।" अनुराधा गुस्से में अहम पर भड़ास निकाल रही थी।
"तुम्हें सब बता देता तो क्या तुम इसके लिए राज़ी हो जाती?" अहम ने पुछा।
अनुराधा के पास उत्तर नहीं था। वह कुछ देर वहीं खड़ी रही। तब तक अहम ने उस पर अगला प्रहार कर दिया।
"अनुराधा! मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं। वील यूं मेरी मी?"
"ये क्या कह रह रहे आप? विवाहित जीवन में आप पहले ही दो बार असफल हो चुके है! इसके बाद भी विवाह करना चाहते है!" अनुराधा बोली।
"तुम शायद मेरे विषय में बहुत कुछ जानती हो!" अहम बोले।
"कौन नहीं जानता।" अनुराधा का प्रतिउत्तर था।
"सही कहा। लेकिन सबकी तरह तुम भी उतना ही जानती हो जितना की मैंने बताया है!" अहम ने कहा।
"क्या मतलब? आपके विषय में जो कुछ सुना, जो पढ़ा, क्या वो सब गल़त है?" अनुराधा ने पुछा।
"नहीं। मैंने ऐसा नही कहा। मेरे कहने का अर्थ है की वो सब अधुरी जानकारी थी।" अहम ने बताया।
अनुराधा आश्चर्यचकित जरूर थी मगर वो अहम को कुछ और समझना चाहती थी।
अहम ने बताया की वह स्वयं भी एक आम लेखकों की तरह प्रकाशकों की ड्योढ़ी पर मत्था टेकने हर रोज़ जाया करता था। मगर कोई भी प्रकाशक उसकी पुस्तक प्रकाशित करने के लिए तैयार नहीं था। अहम इतनी जल्दी हिम्मत हारने वालों में से नहीं था। वह निरंतर प्रयास करता रहा। तब ही उसके संपर्क में सानिया मिर्जा आई। जो स्वयं एक लेखक और प्रकाशक थी। उसने अहम का नाॅवेल पढ़ा। उसे अच्छा भी लगा। किन्तु उपन्यास प्रकाशित करने के पीछे उसने जो शर्त रखी वो अहम को दुविधा में डालने के लिए पर्याप्त थी। सानिया ने अहम को काॅन्ट्रोवर्सी लेखक बनाने का संकल्प लिया। न चाहते हुये भी वह इस बात के लिए तैयार हो गया। सानिया ने अहम को विवादित विषयों पर लेख लिखने हेतु तैयार किया। उसने अपने बलबुते पर वे लेख स्थानीय अखबारों में प्रकाशित भी करवा दिये। साथ ही महिलाओं की एक टुकड़ी को धन-धान्य लेकर अहम के विरूध्द सड़कों पर उतार दिया। अहम के विरूध्द महिलाओं को अपने लेख में अपमानित करना और अश्लीलता फैलाने के संगीन आरोप लगाये गये। यहां तक की बीच सड़क पर उसके मुंह पर कालिख पोती गयी। इस पर भी सानिया नहीं रूकी। उसने सारे शहर में जुते की माला पहनाकर अहम की गधे पर संवारी तक निकाल दी। सारे अखब़ार अहम की ख़बरों से पटे पड़े थे। न्यूज चैनल्स भी अहम की खबरें दिखा रहे थे। रातों-रात अहम स्टार बन चूका था। बुरा ही सही मगर हर कोई उसके विषय में जानना और पढ़ना चाहता था। कुछ दिन हवालात की हवा खाने के बाद सानिया ने अहम को छुड़वा लिया। इसी बीच अहम का प्रथम प्रकाशित उपन्यास 'मामस् मैरिज' पाठकों की पसंद बन चूका था। 'मामस् मैरिज' की एक लाख से अधिक काॅपीयां विक्रय हुई। अवसर का लाभ उठाकर सानिया ने अहम से विवाह कर लिया। सानिया का ऐसा का प्रभाव था की अहम सानिया को मना नहीं कर पाया। अहम की बागडोर अब सानिया के हाथों में थी। सानिया जैसा नाच नचाती, अहम वैसा ही नाचता। अहम को क्या लिखना चाहिये क्या नहीं! इस विषय पर सानिया की घुसपैठ अहम बर्दाश्त नहीं कर सका। परिणाम स्वरूप दोनों में अक्सर वाद-विवाद होने लगे। आये दिन के घरेलु झगड़ों को देखकर सानिया को विश्वास हो गया कि अब अधिक दिनों तक अहम उसे झेल नहीं पायेगा। अतएव राजी-मर्जी से उसने अहम को अपने बिजनेस और जिन्दगी से निकाल बाहर फेंक दिया। अहम खुली हवा में सांस ले ही रहा था कि उसकी जिन्दगी में अर्पणा आ गयी। अपर्णा श्रृंगार रस को पसंद करती थी। अहम का श्रृंगार में भी पर्याप्त दखल था। पत्रों के माध्यम से वह अपर्णा को अपनी नव श्रृंगारित कविताएं भेजा करता। अपर्णा के रूप सौन्दर्य पर अहम मोहित हो गया था। दोनों की प्रारंभिक मुलाकातें प्रेम में बदल गयी। और अंततः दोनों विवाह के बंधन में बंध गये। सब कुछ ठीक चल रहा था। किन्तु अहम के इर्द-गिर्द युवतियों की भरमार देखकर अर्पणा जल भुन जाती। उसे अहम पर एकाधिकार चाहिए था। अहम को यह मंजुर नहीं था। जल्दी ही ये दोनों भी अलग हो गये।
अहम के मुख से सब सुनकर अनुराधा अब भी वही खड़ी थी। अहम उसका निर्णय जानने को आतुर था। यह अनुराधा ने उसकी आंखों की बेचैनी देखकर भांप लिया था।
" अहम जी! मैं दुसरी अहम नहीं बनना चाहती! मैं औरों का सहारा बनना चाहती हूं न की कोई मेरा सहारा बने। अभी तो मेरा सफ़र शुरू ही हुआ है! ठहरने की बात अभी मैं सोच भी नहीं सकती। आपके निजी अनुभव निश्चित ही मुझे सतर्क और सजग रहते हुये अपने लक्ष्य को हासिल करने में मददगार होंगे।" इतना बोलकर अनुराधा वहां से जा चुकी थी। कल ही उसे मुम्बई के लिए निकलना था। जहां उसकी लिखी अगली स्क्रिप्ट पर फिल्म का मुहूर्त होना था।
समाप्त
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जितेन्द्र शिवहरे
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वाह आदरणीय श्री
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत कहानी लिखी है आपने
सच पूछो तो आज भी लेखकों के साथ यही होता है।
प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति को अपना भविष्य
जवाब देंहटाएंबनाने के लिए एक अवसर प्राप्त होता है।
परन्तु लेखकों के लिए कहीं किसी प्रकार न अवसर न सहयोग केवल इस्तेमाल