उठावना - हास्य व्यंग्य
*एक कहानी रोज़ में आज से एक व्यंग्य रोज़*
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उठावना - हास्य व्यंग्य
*कई* वर्षों तक मुझे उठावना शब्द का शाब्दिक अर्थ समझ नहीं आया। इससे पहले मैं समझता था की जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तब उसके शव को उठाना ही उठावना होता है? लेकिन जब वास्तविकता देखी तो उठावना शब्द से मेरी आस्था का ही उठावना हो गया। परिवार के कुछ सदस्य किसी हाॅल या बरामदे में नीचे बैठे होते है। समाज के कुछ लोग उनसे मिलने आते है , उन्हें सांत्वना देते है। इसे ही उठावना कहा गया है।
अरे भई! जब सब लोग नीचे बैठे है, कोई उठ ही नहीं रहा है तो इसे उठावना क्यों कह रहे हो? इसे बिठावना कहिए न! और फिर जब आदमी ही दुनियां से उठ गया फिर तुम क्या उठाने बैठे हो? उस आदमी का शव तो पहले ही फूंक-फांक कर आ गये और अब कह रहे हो की आज संबंधित मृत व्यक्ति का उठावना है! और हां, आप तो ऐसे लोगों को भी उठावना करते है जिसका जमींन पर कभी बिठावना ही नहीं हुआ। वो तो सारी उम्र "इसको भगावना, उसको भगावना" में ही लगे रहा। मैं तो कहता हूं ऐसे आदमी का न तो उठावना होना चाहिए और न ही बिठावना। उसका तो बस 'हटावना' होना चाहिए।
अच्छा! उठावना में कुछ लोग चटावना से भी बाज़ नही आते। उनकी नज़र तो बस यही ढूंढ रही होती है की कहीं कोई खाने-पीने की व्यवस्था हो जाये तो मजा आ जाये! कुछ लोग तो उठावने में आते ही नहीं। उनका ये कहना पड़ता है की जब मैंने लाश को ही शमशान पहूंचावना कर दिया तो मैं उठावने में क्यों जाऊं?
ईश्वर यह सब देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रहे है। मानो वे कहते है तुम नीचे बिठावना वाले कितने भी उठावने करवा लो, मगर जब तक मनुष्य को मेरा बुलावना नहीं होगा तब तक न तो कोई उठावना हो सकता है और न कोई बिठावना। आगे आप सब समझदार है।
समाप्त
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प्रमाणीकरण- रचना मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। रचना प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
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जितेन्द्र शिवहरे
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