*आप भी ना- लघुकथा*
*एक कहानी रोज़-140 (02/09/2020)*
*राकेश* घर की छत पर बंधी रस्सियों पर अपने कपड़े सुखा रहा था। श्रीमती जी आज गुस्से में थी। नताशा ने आज राकेश के कपड़े नहीं धोये थे। राकेश ने निर्णय लिया की स्नान के पुर्व स्वयं ही आज अपने कपड़े धोकर सुखा देगा। बारिश थम चूकी थी। बाहर धूप भी खिली थी। राकेश ने कपडे धोकर बाथरूम में बंधी रस्सियों पर टांग दिये। श्रीमती जी से रहा नहीं गया।
"जब बाहर इतनी तेज धूप है तो कपड़े बाहर छत पर ही सुखा देते।" नताशा बोल पड़ी।
"ये सब मैंने तुम्हारे ही लिये किया है ताकी तुम्हें किसी का कुछ सुनना न पड़े।" राकेश ने कहा। वह स्नान कर चूका था।
"किसकी इतनी हिम्मत जो मुझे कुछ सुनाये?" नताशा ने राकेश को टाॅवेल देते हुये कहा।
"घर की छत पर अपने कपड़े सुखाते हुये यदि कोई पड़ोसी या पड़ोसन मुझे देख लेती तो तुम्हारे विषय में कितनी ऊल-जलूल बातें होने लगती। लोग कहते की देखो! नताशा अपने पति से कपड़े धुलवाती है। और मेरे कारण तुम्हें कोई कुछ कहे मैं ये सह नहीं सकता।" राकेश ने बड़ी आत्मीयता से कह दिया।
नताशा का गुस्सा ये सुनकर जाता रहा।
"आप भी ना!" नताशा के मुख से निकला।
वह मुस्कुरा दी और बाथरूम में टंगे राकेश के गीले कपड़े छत पर बंधी रस्सियों पर सुखाने लगी।
समाप्त
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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
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लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
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