शर्मिली-कहानी
एक कहानी रोज़-244 (18/11/2020)
शर्मिली-कहानी
गायत्री इतनी शर्मिली और डरी हुई रहती थी की जब भी काॅलेज में कोई क्लासमेट युवक गायत्री का मोबाइल नम्बर मांगता तब वह नंबर तो अवश्य देती लेकिन साथ में वह नम्बर लेने वाले का नाम भी अपनी नोटबुक में लिख लिया करती। ताकी भविष्य में उसे किसी तरह की कोई परेशानी का सामना न करना पड़े। काॅलेज में साथ पढ़ने वाले और नगर के स्थानिय युवक गायत्री को जानते थे इसीलिए वे स्वयं गायत्री से दूर रहते।
जब लड़के वाले उसे देखने घर आये तब गायत्री ने अपनी भाभी का हाथ पकड़ लिया।
"भाभी आप भी वही रूकना!" गायत्री डर हुई थी।
"अरे! वह तुझे खा थोड़े ही जायेगा। जो पुछे बस बता देना।" गायत्री को उसकी भाभी ने समझाया।
लड़के वाले जब भी देखने आते, गायत्री की तो जान पर बन आती। डरी-सहमी बड़ी मुश्किलों से तैयार होकर वह लड़के वालों के सामने पहूंच पाती। इससे भी बड़ी दुविधा गायत्री को लड़के से अकेले में बात करने पर होती। उसके दोनों हाथों की गुत्थमगुत्थी किसी पहलवानी कुश्ती से कम नहीं होती। जब सवाल-जवाब का राउण्ड चलता, उस समय गायत्री के पास शब्दों का ऐसा अकाल रहता कि वह कुछ भी कह नहीं पाती। हिम्मत कर यदि कुछ कहा भी तो उसमें अटक जाती अथवा कुछ का कुछ कह जाती। उसके हृदय में बैठा कोई अनजाना-सा डर गायत्री का वैवाहिक जीवन शुरू नहीं होने दे रहा था।
गायत्री के साथ पुरे परिवार उस समय आश्चर्य में डुब गया जब विनय ने गायत्री के साथ शादी करने के लिए हां मी भर दी थी। पुरे परिवार में हर्षोल्लास फेल गया। शादी की तैयारी के बीच बहुत पुछने पर गायत्री ने अपनी भाभी को बताया कि विनय स्वयं कम बोलने और अधिकतर चूप रहने वाले व्यक्तियों में से है। उन्हें स्वयं ऐसी ही लड़की चाहिये थी जो उसके स्वभाव जैसी हो। गायत्री के चेहरे पर अब भय और संकोच के स्थान पर प्रसन्नता थी। उसकी खुशी देखकर सारे परिवार ने ईश्वर का धन्यवाद दिया। इसके साथ ही उस भावना को बल मिला जिसमें कहा जाता है कि संसार में जोड़ियां सभी की बनती है। उचित समय आने पर और योग-संयोग बनने पर संबंध स्वतः जुड़ जाते है।
समाप्त
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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
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लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
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