तशरीफ़-हास्य-व्यंग्य

 *तशरीफ़-हास्य-व्यंग्य* 

          *पहली* बार एक मुशायरें में जाने का योग बना। वहां पहूंचते ही मेजबान मुझसे बोले- "आईये जनाब! तशरीफ़ रखीये।" अब हम ठहरे शुद्ध हिन्दी गीत और कविता वाले। मुझे पता ही नहीं था कि तशरीफ़ किसे कहते है? अनुमान लगाया कि हो सकता है मुशायरों में इसे अपने साथ लाना अनिवार्य होता हो! अथवा तशरीफ़ को नेक स्वरूप भेंट करने का नियम हो? मैं थोड़ी देर चूप खड़ा रहा। सामने देखा तो सभी कवि और श़ायर कुर्सियों पर बैठे थे। मुझे समझ में आ गया कि ये सब लोग तशरीफ़ लेकर आये है और एक अकेला मैं ही तशरीफ़ नहीं लाया। आसपास नज़र दौड़ायी। विचार था कि ये लोग जो तशरीफ़ लाये है वह कहां रखी है! कम से कम देख तो लूं कि तशरीफ़ होती कैसी है? न हुआ तो बाहर दुकान से ही खरीद लाऊंगा। लेकिन मुझे उन सभी की तशरीफ़ कहीं नहीं दिखी। मुझे लगा सभी मेहमानों द्वारा लाई गयी तशरीफ़ मेजबान ने अंदर के कमरे में पहूंचा दी है तब ही तो वहां कोई भी तशरीफ़ दिखाई नहीं दे रही थी। मैंने चुपके से मेजबान के कानों में बुदबुदाया- "आदरणीय! मैं अपने साथ तशरीफ़ नहीं लाया हूं अतः तशरीफ़ नहीं रख सकता।" मेजबान मुस्कुराये और बोले-"तशरीफ़ तो हम सब अपने साथ लेकर ही पैदा होते है। दुनियां में अब तक बिना तशरीफ़ के कोई प्राणी न हुआ।" 

मेरी मुश्किलें अब और बढ़ गयी। तुरंत पिताजी का ख़याल आया। सोचा उनसे फोन लगाकर पूछ लूं कि मेरी तशरीफ़ कहा है? हो सकता है उन्होंने मेरे जन्म के समय मेरी तशरीफ़ कहीं संभाल कर रख दी हो? और सोचा होगा कि जब बेटा बालिग हो जायेगा तब उसे दे देंगे उसे उसकी तशरीफ़। मैं यह सब सोच ही रहा था कि दूर बैठे एक श़ायर मित्र जोरो से बोले पड़े-"आईये मियां! यहां आईये और अपनी तशरीफ़ का टोकरा यहां रखिये।" मुझे कांटों तो खून नहीं था। तशरीफ़ की गुत्थी अभी सुलझी भी न थी और इन्होंने टोकरा शब्द आगे जोड़कर मुझे और भी ज्यादा हैरत में डाल दिया। खैर, इतना तो समझ में आया कि तशरीफ़ को टोकरे में रखा जाता है। मगर मेरे पास तो दोनों ही नहीं थे। क्या कहूं? क्या न कहूं? मैंने सबके सामने हाथ जोड़ लिये और भरी महफील में घोषणा करते हुये कहा-"आप सभी मान्यवर मुझे माफ करे। मैं अपने साथ न कोई तशरीफ़ लाया हूं और न ही टोकरा। यदि इसके बिना मैं मुशायरें में सम्मिलित होने की योग्यता नहीं रखता तो मुझे अनुमति दे कि मैं यहां से तुरंत लौट जाऊं? भविष्य में तशरीफ़ और टोकरे के साथ ही पधारूंगा, ऐसा मैं आप सभी को वचन देता हूं।" मेरी इस घोषणा पर उपस्थित सभी कवि-शायर ठहाके लगाकर हंस पढ़े। मुशायरें के अंत तक मेरी और मेरी तशरीफ़ की चर्चा समय-समय पर होती रही। एक कवि मित्र ने बड़े ही सरल शब्दों में तशरीफ़ का अर्थ मुझे समझाया। मुझे अपनी अल्पमति पर जितनी ग्लानि थी उतनी ही इस बात की प्रसन्नता थी की इस तशरीफ़ ने भरी महफिल के आगे पलभर में मुझे न केवल प्रसिद्ध कर दिया था बल्कि सम्मिलित सभी साहित्यकारों की स्मृति में मैं कभी न भुलने वाला वाक़या बनकर अजर-अमर हो गया।



समाप्त 

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प्रमाणीकरण- 'तशरीफ़' हास्य-व्यंग्य मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। रचना प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।


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लेखक--

जितेन्द्र शिवहरे 

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