कवि पुत्र और पहलवानी कुश्ती
*एक कहानी रोज़-310*
*कवि पुत्र और पहलवानी कुश्ती-व्यंग्य*
*एक* कवि मित्र का नाबालिक बेटा पड़ोस के पहलवान के बेटे से जा उलझा। दोनों में मल युद्ध हुआ। फिर जमकर लात-घूसें चले। कवि मित्र के लड़के ने कुछ देर तक तो पहलवान पुत्र का सामना किया। मगर पहलवान के आगे अंततः उसने घूटने टेक ही दिये। खूब मार खाई। आखिर में जान बचाकर घर की और दौड़ लगा दी। दरवाजा बंद कर एक कोने में दुबककर बैठने में ही भलाई समझी। अगले दिन जब कवि मित्र कवि सम्मेलन निपटाकर घर पहुंचे तो वह उनका बेटा मूंह फूलाये बैठा था। बहुत पूछने पर उसने सबकुछ बताया और कहा कि जब तक कि उसके पिता यानि कि अपने कवि उस पहलवान के बेटे को पटखनी देकर नहीं आ जाते, तब तक वह खाना नहीं खायेगा। कवि मित्र की जान हलक तक आ पहूंची। क्योंकी पहलवान पुत्र से वो निपट लेंगे किन्तु यदि पहलवान कहीं से आ धमका तब इनका क्या होगा? यही सोच रहे थे कि इतने में श्रीमती की घूरती आंखों ने साफ कह दिया कि आज या तो उनके बेटे की बेईज्ज़ती का बदला लेकर आओ अन्यथा घर से निकलो। बेचारे शब्दों से खेलने वाले कवि मित्र कुश्ती खेलने को तैयार थे। लंगोट बांधकर जैसे ही कवि मित्र ने पहलवान पुत्र को ललकारा, पहलवान पुत्र और पहलवान ने कवि मित्र को तब तक मारा जब कि इनकी याददाश्त नहीं चली गयी।
अब कवि मित्र की श्रीमती जी और उनका बेटा दोनों मिलकर वही कविताएं कवि मित्र को सुनाकर उनकी याददाश्त पुनः लाने की कोशिश कर रहे है जो कविताएं कवि मित्र कभी अपने बीवी और बच्चें को सुनाया करते थे।
समाप्त
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प्रमाणीकरण- व्यंग्य मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। रचना प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
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लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
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