कवि सम्मेलन में गुलाटी-व्यंग्य

    *कवि सम्मेलन में गुलाटी-व्यंग्य*


      *एक* दिन जैसे ही कवि सम्मेलन के मंच पर मुझे काव्य पाठ के लिए आमंत्रित किया गया, मैंने देखा एक बालक सामने बैठे कुछ श्रौताओं के बीच इधर से उधर गुलाटी मार रहा है। मैंने पुछा- "क्यों बेटा! ये कर रहा है?" उसने बड़ी ही मासूमियत से कहा- "अंकल! खाना पचा रहा हूं।" मुझे कांटों तो खून नहीं। मैं गुस्से से बोला- "तुझे यही जगह मिली खाना पचाने के लिए! और वो भी मेरे ही काव्यपाठ के समय? अपने घर में मार लेता गुलाटी! यहां मेरा काव्यपाठ खराब करने क्यों आ गया?" तब वह बोला- "मैं पहले घर पर ही गुलाटी मार रहा था। लेकिन इसमें घरवालों की जान पर खतरा मंडराने लगा था?"

"वह कैसे?" मैंने पूछा।

तब उसने विस्तार से बताया- "मेरे द्वारा गुलाटी मारने से दीवार पर लगी चींजे और अलमाली में रखे बर्तन-भांडे नीचे गिर-पड़ रहे थे। जिससे परिवार के लोग घायल होने लगे थे। तब पापा ने मुझे समझाया कि आज मोहल्ले में कवि सम्मेलन है। जा! वहां चला जा। वहां नीचे की बैठक में बहुत सारी खाली जगह होगी। जाकर वहां गुलाटी मार। इसलिए मैं यहां चला आया गुलाटी मारने।"

यह सुनकर श्रौता और कविगण सभी हंस पड़े।

अब वो लड़का गुलाटी भी मार रहा था और मेरा काव्यपाठ भी जारी था।


समाप्त 

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प्रमाणीकरण- व्यंग्य मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। रचना प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।


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लेखक--

जितेन्द्र शिवहरे 

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