हम तुम एक लिफ्ट में बंद हो-कहानी

 *हम तुम एक लिफ्ट में बंद हो-कहानी*

   *चेतना* लिफ्ट में दाखिल हुई। उसे सातवें माले पर कुछ काम था। लिफ्ट ऊपर चलने को तैयार थी। इतने में दौड़ता हुआ करण लिफ्ट में प्रवेश कर गया। वह हांफ रहा थी। चेतना एक कोने में जाकर खड़ी हो गयी। करण लिफ्ट के मिरर में स्वयं को देख रहा था। वह अपने बाल संवारने लगा।

'ये आजकल के लड़के भी न! जरा सी बाॅडी-वाॅडी क्या बना ली, खुद को बड़े माॅडल समझने लग जाते है!' चेतना मन में सोचने लगी। वह तिरछी नज़र से करण को देख रही थी।

लिफ्ट चल पड़ी थी।

'अरे! तुम्हारे सामने एक खुबसूरत, जवान लड़की खड़ी है उसे देखो। खुद को तो रोज़ देखते हो। जरा सुन्दर लड़कीयों की कद्र करना सीखों। मेकअप में इतना खर्चा किया है थोड़ा तो वसूल हो!' चेतना मन ही मन कह रही थी।

करण ने अपना सिर घुमाकर चेतना की ओर देखा। हल्की मुस्कान बिखेरकर वह पुनः स्वयं में व्यस्त हो गया। 

'माय गाॅड! क्या इसने मुझे सुन तो नहीं लिया!' चेतना ने स्वयं से प्रश्न किया। वह अपने खुले कंधें ढकने लगी।

'अरे नहीं! मन की आवाज़ भला कोई कैसे सुन सकता है! वैसे छोरे की स्माईल अच्छी है। दिखता भी ठीक-ठाक ही है!' चेतना ने सोचा।

'कंट्रोल चेतना, कन्ट्रोल! ऐसा न हो कि तु इस लड़के पर फिदा हो जायें! पल दो पल का मेहमान है वो तेरे सामने!' चेतना हंसने लगी।

करण मोबाइल में घूंसा था। चेतना ने भी अपना मोबाइल निकाल लिया। इतने में चलते-चलते लिफ्ट रूक गयी। चेतना घबरा गयी। क्योंकी लिफ्ट की लाइट भी जा चूकी थी। अनजान युवक के साथ लिफ्ट में वह एक अकेली जवान और खुबसूरत लड़की! कहीं युवक ने चेतना के साथ कोई ऐसी-वैसी हरकत करने की कोशिश की तो! चेतना ने अपने पर्स के अंदर हाथ डाला। 'ओहहह नो! जल्दबाजी में स्प्रै घर पर ही छूट गया!' चेतना बड़बड़ाई।

करण ने हिम्मत दिखाई और मोबाइल का टार्च ऑन किया। करण का चेहरा दूधियां रोशनी में देखकर चेतना सिहर उठी।

'मैं तुझे छोड़ूंगा नहीं। तु मरेगी। अब तू मरेगी।' करण भूत बन चूका था। यह करण का भूत ही कह रहा था।

'नहीं मुझे छोड़ दो! मैनें तुम्हारा क्या बिगाड़ा है! अभी तक मेरी शादी भी नहीं हुई!' चेतना याचना कर रही थी।

"मैडम! मैडम! आप ठीक है! करण ने चेतना को स्वप्न में से जगाया।

'ओहहह! तो यह सपना था। कितना भयानक और डरावना सपना था।' चेतना मन में बोली।

"हां! मैं ठीक हूं। थैंक्स!" चेतना ने करण से कहा।

"डोन्ट वरी। लाइट चली गयी है। जल्दी आ जायेगी।" करण ने कहा।

"आपको नहीं लगता कि लिफ्ट खराब हो गयी है और हम इसमें फंस गये है?" चेतना ने करण से पूछा।

"हो सकता है!" करण लिफ्ट के बटन आदि दबा कर देख रहा था।

'हो सकता है, मीन्स यह जानता है कि लिफ्ट खराब हो गयी है! या फिर इसी लड़के ने जानबूझ कर लिफ्ट खराब करवाई है! कहीं यह मेरे साथ जबरदस्ती तो नहीं करेगा?' चेतना ऊलजलूल सोचने लगी।

करण के चेहरे पर अब भी हंसी थी।

'यह हंस रहा है मतलब पक्का यह मेरी इज्जत पर हाथ डालेगा। मैं न मानी तो हो सकता है यह मुझे मारे-पीटे! नहीं! मैं कोई कमजोर अबला नहीं हूं। मैं आज की नारी हूं और इस ठर्की का सामना करना अच्छे से आता है मुझे!' चेतना ने धीमी आवाज़ में कहा।

"आपने कुछ कहा!" करण ने चेतना से पूछा।

"नहीं तो! आपने कुछ सुना क्या!" चेतना ने कहा।

करण धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। चेतना डर गयी। वह लिफ्ट की दीवार की तरफ सिकुड़ती जा रही थी।

'देखो, मुझे जाने दो! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? यदि तुम मेरी इज्जत लुट लोगे तो कोई मुझसे शादी नहीं करेगा! प्लीज मुझे छोड़ दो!' चेतना पुनः स्वप्न में खो गयी।

करण ने अपने दोनों हाथों से चेतना को फिर से जगाया। चेतना जब होश में आई, करण उसे हैरानी से देख रहा था।

"अपको कोई मेन्टली प्राॅबल्म है क्या?" करण ने पूछा।

"क्यों?" चेतना ने आगे पूछा।

"क्यों क्या! मुझे छोड़ दो! मुझे छोड़ दो! मेरी इज्जत मत लुटो! अभी तो मेरी शादी नहीं हुई! ये क्या ऊलजलूल बक रही है आप?" करण ने पूछा।

चेतना की जीभ दांतों के बीच ओठों के एक ओर आकर दब गयी। वह शर्मिन्दा थी। ख़यालों में वह जाने क्या-क्या सोच रही थी।

"कहीं आप ये तो वह सोच रही थी बंद लिफ्ट में मैं आपके साथ बदतमीजी कर रहा हुं?" करण ने पूछा।

"अरे! नहीं। आप ऐसा नहीं कर सकते। आप तो जैन्टमैन है।" चेतना ने बात को दबाया।

"कर भी सकता हूं।" करण ने कहा।

"क्या?" चेतना ने हैरानी से पूछा।

"आप जैसी खूबसूरत लड़की साथ में हो और लिफ्ट में अकेली भी हो तो किसका मन नहीं बहकेगा?" करण बोला। वह मसखरी कर रहा था।

"देखीये! मेरे साथ ऐसा-वैसा कुछ करने की कोशिश की तो अच्छा नहीं होगा। तुम्हें शायद पता नहीं, मेरे अंकल पुलिस में है!" चेतना हिम्मत कर बोली।

"अरे! आप तो फिजूल में डर गयी। मैं तो मज़ाक कर रहा था!" कहते हुये करण पुनः मोबाइल में व्यस्त हो गया।

'पुलिस का नाम सुनते ही सारी हेकड़ी निकल गयी छोरे की। काश! सच में मेरे अंकल पुलिस में होते तो मुझे यह झूठ नहीं बोलना पड़ता।' चेतना मन में बोली।

अब करण विचारों में डूब गया।

'कहीं ये लड़की मुझे जबरन झूठे केस में न फंसा दे? हम दोनों इस लिफ्ट में अकेले है। इसका कोई भरोसा नहीं है! कुछ भी कह दे। ये लड़की तो यह भी कह सकती है कि करण ने मेरे साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की है। मेरी कोई नहीं सुनेगा, सब लड़की की बात मान लेंगे।' करण सोच रहा था।

'या फिर ये लड़की मुझे ब्लैकमेल कर सकती है। मुझे झूठे केस में फंसाने के बदले मुझसे रूपये ऐंठ सकती है!' करण के माथे पर पसीना तैर गया।

वह चेतना से दूरी बनाकर खड़ा हो गया। जिस डर के सायें में अब तक चेतना थी उसी डर के सायें में अब करण था। मन ही मन वह भी प्रार्थना कर रहा था कि लिफ्ट जल्दी से जल्दी शुरू हो जाये ताकी वह चेतना से दूर जा सके।

इतने में लाइट आ गयी। लिफ्ट का अंदरूनी भाग रोशनी से नहा गया। चेतना और करण खुद को सामान्य दिखाने का प्रयास करने लगे। लिफ्ट पुनः चल पड़ी।

चेतना और करण दोनों परस्पर एक-दूसरे के प्रति बना चूके असत्य धारणा पर मन ही मन दुःखी थे। चेतना चाहती थी कि वह करण से साॅरी बोल दे। यही सोच करण की भी थी। सातवें माले पर आकर लिफ्ट रूक गयी। चेतना ने अपना हैण्ड पर्स कंधे पर ठीक किया और लिफ्ट से बाहर निकल आई।

"एक्सक्ययूजमी! करण ने कहा। वह भी चेतना के पीछे-पीछे लिफ्ट से बाहर आ गया।

"येस!" चेतना ने पलटकर पूछा।

"साॅरी टू से बट मुझे गिल्टी फिल हो रहा था इसलिए आपसे साॅरी बोलने चला आया।" करण बोला।

"किस बात की गिल्टी?" चेतना ने पूछा।

करण ने सारी बात बताई।

चेतना हंस पढ़ी।

"फिर तो मुझे भी आपसे माफी मांगनी चहिये क्योंकी मैं भी आपके विषय में ऊलजलूल सोच रही थी।" चेतना ने अपने मन की सारी बातें करण को बताई। करण भी हंसने लगा।

दोनों ने हंसते हुये एक-दुसरे से विदा ली।



समाप्त

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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमति है।


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जितेन्द्र शिवहरे (लेखक/कवि)

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