व्यवसाय-लघुकथा

 व्यवसाय-लघुकथा

      प्राण द्वारा स्थापित भोजनालय उसका चौथा व्यवसाय था जिसमें लाखों रुपयों की पूंजी लगाकर भी उसे घाटा ही मिला। पूर्व तीन व्यापारिक कार्यों की तरह अंततः उसे यह भोजनालय भी बंद करना पड़ा। प्राण भारी तनाव में आ गया। रुपयें मांगने वाले अब उसे परेशान करने लगे थे। पूर्व में वह तड़ीपार भी हो चुका था। मगर लेनदारों ने प्राण को खोज निकाला। अतः भूमिगत होने का विचार उसे इस बार त्यागना पड़ा।

मुख्य सड़क के किनारे लगभग दृष्टिगोचर सुगम स्थान पर रातो-रात देव स्थल का निर्माण आश्चर्य का विषय अवश्य था। भक्तों के लिए सुलभ यह देवालय हर  आने-जाने वाले की नज़र में रहता। दैनिक बसों ने मंदिर के वहां रूकना क्या शुरू किया पुजारी हेमंत की नियमित दक्षिणा आरंभ हो गयी। तेल का चढ़ावा भी पर्याप्त मात्रा में जमा हो जाता। सप्ताहांत में दान पेटी रुपयों से जल्दी ही भरने लगी।

कुछ ही वर्षों में प्राण का व्यक्तित्व आकर्षक हो गया। उसकी संपन्नता देखकर समतुल्य व्यवसायी महान आश्चर्य में डूबे रहते। भोजनालय के बाद किसी ने प्राण को काम करते नहीं देखा। मंदिर पर उमड़ती भक्तों की भीड़ उस समय आश्चर्य में पड़ जाती जब देव स्थल के शीर्ष पर निर्माण कर्ता के नाम एवं फोटो के स्थान पर प्राण का नाम और फोटो दिखाई देता।



समाप्त

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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमति है।


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जितेन्द्र शिवहरे (लेखक/कवि)

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