डियर लवली वाइफ-कहानी

 डियर लवली वाइफ-कहानी

     अभिषेक और कल्पना की शादी को पन्द्रह वर्ष हो चुके थे। कहीं कुछ तो था जो मीसींग था। भरा-पूरा परिवार होने के बावजूद कल्पना को हमेशा लगता था कि उनकी शादी-शुदा लाइफ में सब कुछ पहले जैसा नहीं है। अभिषेक अपने कर्तव्य निर्वहन में इस कदर उलझा था कि वह अपनी पत्नी और बच्चों को सर्व सुख सुविधा उपलब्ध कराने के लिए अधिक से अधिक धन कमाने के बहुद्देशीय प्रयास करता रहता। कल्पना की दैनिक दिनचर्या एक दम ऊबाऊ सी होने लगी थी। उसके व्यवहार में आये चिढ़चिढ़े पन को घर में सभी ने नोट किया था। विपाशा और दिव्यांश रात के खाने के बाद अकेले आंगन में बैठे पिता अभिषेक के पास जा पहूंचे।


"पापा! ये सच है जितना आपने मम्मी और हम दोनों भाई-बहनों के लिए किया, उतना कोई नहीं कर सकता।" विपाशा बोली।

"पापा! आप हमारे परिवार की रीढ़ हो। आप के बिना हम कुछ भी नहीं।" दिव्यांश बोला।

"तुम दोनों क्या कहना चाहते हो?" अभिषेक ने मुस्कराते पूछा।

"पापा! मम्मी का अपने परिवार के प्रति त्याग और समपर्ण भी उतना ही महत्व रखता है जितना कि आप हमारे लिए महत्वपूर्ण है।" विपाश बोली।

"मम्मी को आपकी अटेशंन की जरूरत है पापा! उन्हें आपका स्नेह फिर से फुलों की तरह खिला सकती है।" दिव्यांश बोला।

अभिषेक सारा माजरा समझ गये।

"तुम्हारी मम्मी हंसती-खेलती ही अच्छी लगती है। लेकिन  इसके लिए मैं क्या कर सकता हूं?" अभिषेक ने पूछा।


दोनों भाई बहन मुस्कुरा दिये।

"पापा! आप मम्मी को लेटर लिखीए।" दिव्यांश बोला।

"सिर्फ लेटर नहीं, लव लेटर!" विपाशा बोली।

"क्या?" अभिषेक चकित थे।

"हां पापा! हमें पता है कि आप मम्मी को बहुत प्यार करते है लेकिन आपने अपने मुंह से मम्मी को अब तक वह सब नहीं कहा जो आपके मन में है।" विपाशा बोली।

"हां पापा! इसलिए आपको लव लेटर में शुरू से वह सब लिखना होगा जो आपने मम्मी के प्रति महसूस किया!" दिव्यांश ने आगे कहा।


अभिषेक प्रसन्न था। उसे अपने बच्चों से इतनी समझदारी की उम्मीद न थी। 


अभिषेक ने कलम उठाई और लिखना शुरू कर दिया।


"माय डियर लवली वाइफ कल्पना!


 तुम्हें कितना कुछ कहना चाहता हूं मगर एक पति के रूप में कभी कह नहीं पाया। आज एक प्रेमी बनकर लिख रहा हूं। तुमने मेरे जीवन में आकर मुझे पुर्ण किया। मेरी घर-गृहस्थी को न केवल संभाला बल्कि संवारा भी। 


मुझे दाम्पत्य सुख दिया। मूझे पिता बनने का सौभाग्य दिया। एक दोस्त की मेरे गुस्से और चिढ़चिढ़ेपन को सहा। मां बनकर मुझे दुनियांदारी भी सिखाई। पिता बनकर मुझे अनुचित मार्ग पर जाने से रोका। तुमने मेरी निगरानी भी जिससे की मैं कहीं भटक न जाऊं.....



अनवरत...


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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमति है।


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जितेन्द्र शिवहरे (लेखक/कवि)

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